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خط ۳۰۴: |
خط ۳۰۴: |
| {{ب| مشکوة نور و کوکب دُرّىِ نشأتین | مصباح سالکان طریق وفا، حسین }} | | {{ب| مشکوة نور و کوکب دُرّىِ نشأتین | مصباح سالکان طریق وفا، حسین }} |
| {{پایان شعر}} | | {{پایان شعر}} |
| {| style="margin: 0 auto; "
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> باز این چه آتش است که بر جان عالم است؟ </span>
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| | style="width:2em;" |
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| | class="b" |<span class="beyt"> باز این چه شعلۀ غم و اندوه و ماتم است؟ </span>
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| |-
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| | class="b" |<span class="beyt"> باز این حدیث حادثه جانگداز چیست؟ </span>
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| | style="width:2em;" |
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| | class="b" |<span class="beyt"> باز این چه قصّهاى است که با غصّه توام است؟ </span>
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| |-
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| | class="b" |<span class="beyt"> این آه جانگزاست که در ملک دل به پاست؟ </span>
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| | style="width:2em;" |
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| | class="b" |<span class="beyt"> یا لشکر عزاست که در کشور غم است؟ </span>
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| |-
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| | class="b" |<span class="beyt"> آفاق پر ز شعله برق و خروش رعد؟ </span>
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| | style="width:2em;" |
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| | class="b" |<span class="beyt"> یا ناله پیاپى و آه دمادم است؟ </span>
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| |-
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| | class="b" |<span class="beyt"> چون چشمه، چشم مادر گیتى ز طفل اشک </span>
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| | style="width:2em;" |
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| | class="b" |<span class="beyt"> روى جهان چو روى پدر مرده درهم است </span>
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| |-
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| | class="b" |<span class="beyt"> زین قصه سر به چاک گریبان کروبیان </span>
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| | style="width:2em;" |
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| | class="b" |<span class="beyt"> در زیر بار غصّه قدِ قدسیان خم است </span>
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| |-
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| | class="b" |<span class="beyt"> گلزار دهر گشته خزان از سموم قهر </span>
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| | style="width:2em;" |
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| | class="b" |<span class="beyt"> گویا ربیع ماتم و ماه محرم است </span>
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| |-
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> ماه تجلّى مه خوبان بود به عشق </span>
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| | style="width:2em;" |
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> روز بروز جذبه جانباز عالم است </span>
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| |-
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| | class="b" |<span class="beyt"> مشکوة نور و کوکب دُرّىِ نشأتین </span>
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| | style="width:2em;" |
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| | class="b" |<span class="beyt"> مصباح سالکان طریق وفا، حسین </span>
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| |}
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| '''2'''{{شعر}} | | '''2'''{{شعر}} |
خط ۳۶۳: |
خط ۳۲۴: |
| {{ب| سر بر زمین گذاشت که تا سربلند شد | وز خود گذشت تا ز خدا بهرهمند شد }} | | {{ب| سر بر زمین گذاشت که تا سربلند شد | وز خود گذشت تا ز خدا بهرهمند شد }} |
| {{پایان شعر}} | | {{پایان شعر}} |
| {| style="margin: 0 auto; "
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> گلگون قباى عرصه میدان کربلا </span>
| |
| | style="width:2em;" |
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> زینت فزاى مسند ایوان کربلا </span>
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| |-
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> لبتشنه فرات، روانبخش کائنات </span>
| |
| | style="width:2em;" |
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> خضرِ زلالِ چشمه حیوان کربلا </span>
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| |-
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> سرمست جام ذوق و جگرسوز نار شوق </span>
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| | style="width:2em;" |
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> غوّاص بحر وحدت و عطشان کربلا </span>
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| |-
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> سرباز کوى دوست که در عشق روى دوست </span>
| |
| | style="width:2em;" |
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> افکنده سر چو گوى به چوگان کربلا </span>
| |
| |-
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> رکنِ یمان <ref>یکى از ارکان خانه کعبه.</ref>و کعبه ایمان، که از صفا </span>
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| | style="width:2em;" |
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> در سعى شد ز مکّه به عنوان کربلا </span>
| |
| |-
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> لبیّک بر زبان به سرِ دست: نقد جان </span>
| |
| | style="width:2em;" |
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> روى رضا به سوى بیابان کربلا </span>
| |
| |-
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> چون نقطه در محیط بلا ثابتُ القدم </span>
| |
| | style="width:2em;" |
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> گردون نهاد بر خط فرمان کربلا </span>
| |
| |-
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> بر ما سواىِ دوست، سرِ آستین فشاند </span>
| |
| | style="width:2em;" |
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> آسوده سر نهاد به دامان کربلا </span>
| |
| |-
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> سر بر زمین گذاشت که تا سربلند شد </span>
| |
| | style="width:2em;" |
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> وز خود گذشت تا ز خدا بهرهمند شد </span>
| |
| |}
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| '''3'''{{شعر}} | | '''3'''{{شعر}} |
خط ۴۲۲: |
خط ۳۴۴: |
| {{ب| در قلزم محبّتِ آن شاه چو حباب | افراشتند خیمه هستى به روى آب }} | | {{ب| در قلزم محبّتِ آن شاه چو حباب | افراشتند خیمه هستى به روى آب }} |
| {{پایان شعر}} | | {{پایان شعر}} |
| {| style="margin: 0 auto; "
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> ارباب عشق را چو صلاى بلا زدند </span>
| |
| | style="width:2em;" |
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> اول به نام عقل نخستین صلا زدند </span>
| |
| |-
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> جام بلا به کام «بلى گو» شد از الست </span>
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| | style="width:2em;" |
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> سنگِ بلى به جانب کرب و بلا زدند </span>
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| |-
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> تاج مصیبتى که فلک تاب آن نداشت </span>
| |
| | style="width:2em;" |
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> بر فرقِ فَرقَدان <ref>نام دو ستاره است در نزدیکى قطب شمالى. در فارسى به آن دو: دو برادران و یا دو برارو گفته مىشود.</ref>شهِ «لافتى» زدند </span>
| |
| |-
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> پس بر حجاب اکبر ناموس کبریا </span>
| |
| | style="width:2em;" |
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> آتش ز کینههاى نهان، برملا زدند </span>
| |
| |-
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> شد لعل دُر فشان حقیقت زمرّدین </span>
| |
| | style="width:2em;" |
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> الماس کین چو بر جگر زدند </span>
| |
| |-
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> پس در قلمرو غم و اندوه و ابتلا </span>
| |
| | style="width:2em;" |
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> کوس بلا به نام شهِ زدند </span>
| |
| |-
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> فرمانِ نو خطان رکابش که خطّ محو </span>
| |
| | style="width:2em;" |
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> بر نقش ماسوا ز کمال صفا زدند </span>
| |
| |-
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> دست ولا زدند به دامان شاه عشق </span>
| |
| | style="width:2em;" |
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> بر هردو عالم از ره تحقیق پا زدند </span>
| |
| |-
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> در قلزم محبّتِ آن شاه چو حباب </span>
| |
| | style="width:2em;" |
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> افراشتند خیمه هستى به روى آب </span>
| |
| |}
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| '''4'''{{شعر}} | | '''4'''{{شعر}} |
خط ۴۸۱: |
خط ۳۶۴: |
| {{ب| کلک قضاست از رقم این عزا، کلیل | لوح قدر فرو زده رخساره را به نیل }} | | {{ب| کلک قضاست از رقم این عزا، کلیل | لوح قدر فرو زده رخساره را به نیل }} |
| {{پایان شعر}} | | {{پایان شعر}} |
| {| style="margin: 0 auto; "
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> ترسم که بر صحیفه امکان قلم زنند </span>
| |
| | style="width:2em;" |
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> گر ماجراى کرب و بلا را رقم زنند </span>
| |
| |-
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> گوش فلک شود کر و هوش ملک ز سر </span>
| |
| | style="width:2em;" |
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> گر نغمهاى ز حال امام امَم زنند </span>
| |
| |-
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> زان نقطۀ وجود، حدیثى اگر کنند </span>
| |
| | style="width:2em;" |
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> خط عدم به ربطِ حدوث و قدم زنند </span>
| |
| |-
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> آن رهبر عقول که صد همچو عقل پیر </span>
| |
| | style="width:2em;" |
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> در وادى غمش نتوان یک قدم زنند </span>
| |
| |-
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> ماء معین چو زهر شود در مذاق دهر </span>
| |
| | style="width:2em;" |
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> گر از لبان تشنه او لب به هم زنند </span>
| |
| |-
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> وز شعله سرادقِ گردون قبابِ او </span>
| |
| | style="width:2em;" |
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> بر قبّه سرداق گردون علم زنند </span>
| |
| |-
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> سیل سرشک و اشک دمادم روان کنند </span>
| |
| | style="width:2em;" |
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> گر ز اشک چشم سیّد سجّاد دم زنند </span>
| |
| |-
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> تا حشر دل شود به کمند غمش اسیر </span>
| |
| | style="width:2em;" |
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> گر ز اهل بیت او سخن از بیش و کم زنند </span>
| |
| |-
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> کلک قضاست از رقم این عزا، کلیل </span>
| |
| | style="width:2em;" |
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> لوح قدر فرو زده رخساره را به نیل </span>
| |
| |}
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| '''5'''{{شعر}} | | '''5'''{{شعر}} |
خط ۵۴۰: |
خط ۳۸۴: |
| {{ب| مستغرق جمال ازل گشت لایزال | نوشید از زلال لقا، شربت وصال }} | | {{ب| مستغرق جمال ازل گشت لایزال | نوشید از زلال لقا، شربت وصال }} |
| {{پایان شعر}} | | {{پایان شعر}} |
| {| style="margin: 0 auto; "
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> سهم قدَر ز قوس قضا دلنشین رسید </span>
| |
| | style="width:2em;" |
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> در مرکز محیط رضا، تیر کین رسید </span>
| |
| |-
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> کرد آن سه شعبه نقطه توحید را دونیم </span>
| |
| | style="width:2em;" |
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> وز شش جهت فغان به سپهر برین رسید </span>
| |
| |-
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> سرّ مصون ز مَکمَن غیب آشکار شد </span>
| |
| | style="width:2em;" |
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> ز آن ناوکى که بر دل حقِّ مبین رسید </span>
| |
| |-
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> بازوى کفر و طعنه کفّار شد قوى </span>
| |
| | style="width:2em;" |
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> ز آن طعنِ نیزهاى که به پهلوى دین رسید </span>
| |
| |-
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> از تاب رفت شاهد سلطان معرفت </span>
| |
| | style="width:2em;" |
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> ز آن سوز و سازها که به شمع یقین رسید </span>
| |
| |-
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> آمد به قصد کعبه مقصود پیل مست </span>
| |
| | style="width:2em;" |
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> دیو لعین به قهبط <ref>محل فرود و نزول.</ref> روح الامین رسید </span>
| |
| |-
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> افعىصفت، گرفت سر از گنج معرفت </span>
| |
| | style="width:2em;" |
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> بد گوهرى به مخزن دُرِّ ثمین رسید </span>
| |
| |-
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> آن نفس مطمئنّه حیاتى ز سر گرفت </span>
| |
| | style="width:2em;" |
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> ز آن نفخهاى که در نفس آخرین رسید </span>
| |
| |-
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> مستغرق جمال ازل گشت لایزال </span>
| |
| | style="width:2em;" |
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> نوشید از زلال لقا، شربت وصال </span>
| |
| |}
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| '''6'''{{شعر}} | | '''6'''{{شعر}} |
خط ۵۹۹: |
خط ۴۰۴: |
| {{ب| سر حلقه عقول، چو بر نى مقام کرد | قوس صعود عشق، ظهورى تمام کرد }} | | {{ب| سر حلقه عقول، چو بر نى مقام کرد | قوس صعود عشق، ظهورى تمام کرد }} |
| {{پایان شعر}} | | {{پایان شعر}} |
| {| style="margin: 0 auto; "
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> شد نوکِ نى چو نقطه ایجاد را، مدار </span>
| |
| | style="width:2em;" |
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> از دور مانده، دائرةُ اللّیل و النّهار </span>
| |
| |-
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> سر زد چو ماه معرفت از مشرق سنان </span>
| |
| | style="width:2em;" |
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> از مغرب، آفتاب قیامت شد آشکار </span>
| |
| |-
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> شیرازه صحیفه هستى ز هم گسیخت </span>
| |
| | style="width:2em;" |
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> شد پاره پاره، دفتر اوضاع روزگار </span>
| |
| |-
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> کلک ازل ز نقش ابد تا ابد بماند </span>
| |
| | style="width:2em;" |
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> لوح قدر فتاد چو کلک قضا ز کار </span>
| |
| |-
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> در گنبد بلند فلک، نالۀ ملک </span>
| |
| | style="width:2em;" |
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> افکند در صوامع <ref>جمع صومعه، در اینجا مطلق عبادتگاه.</ref> لاهوتیان شرار </span>
| |
| |-
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> عقل نخست نقش جهان را به گریه شست </span>
| |
| | style="width:2em;" |
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> و اندر عقول زد شرار از آه شعله بار </span>
| |
| |-
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> یکباره سوخت همچو سپند از غمش خلیل </span>
| |
| | style="width:2em;" |
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> آمد دوباره نوح به توفان غم دچار </span>
| |
| |-
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> در طور غم، کلیم شد از غصّه: دل دو نیم </span>
| |
| | style="width:2em;" |
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> و اندر فلک مسیح چنان شد که روى دار </span>
| |
| |-
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> سر حلقه عقول، چو بر نى مقام کرد </span>
| |
| | style="width:2em;" |
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> قوس صعود عشق، ظهورى تمام کرد </span>
| |
| |}
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| '''7'''{{شعر}} | | '''7'''{{شعر}} |
خط ۶۵۸: |
خط ۴۲۴: |
| {{ب| پس کرد روى خویش سوى روضه رسول | کاى جدِّ تاجبخش من! اى رهبر عقول }} | | {{ب| پس کرد روى خویش سوى روضه رسول | کاى جدِّ تاجبخش من! اى رهبر عقول }} |
| {{پایان شعر}} | | {{پایان شعر}} |
| {| style="margin: 0 auto; "
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> در ناکسان چو قافله بیکسان فتاد </span>
| |
| | style="width:2em;" |
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> یک بوستان ز لاله، به دست خسان فتاد </span>
| |
| |-
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> یک رشتهاى ز دُرّ یتیم گرانبها </span>
| |
| | style="width:2em;" |
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> در دست ظلم سنگدلان، رایگان فتاد </span>
| |
| |-
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> یک حلقهاى ز منطقۀ چرخ معدات </span>
| |
| | style="width:2em;" |
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> در حلقه اسیرى و جور زمان فتاد </span>
| |
| |-
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> ز آن پس، گذار دسته دستان <ref>در لغت به معناى سرود آمده، به بلبل از همین جهت هزاردستان گویند و در اینجا باید به همین معنا عنایت شود.</ref> دلستان </span>
| |
| | style="width:2em;" |
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> در بوستان سرو و گل و ارغوان فتاد </span>
| |
| |-
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> هر بیدلى به ناله شد از داغ لالهاى </span>
| |
| | style="width:2em;" |
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> هر بلبلى به یاد گلى در فغان فتاد </span>
| |
| |-
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> ناموس حق ز جلوه طاووس کبریا </span>
| |
| | style="width:2em;" |
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> گشت آن چنان، که مرغ دلش ز آشیان فتاد </span>
| |
| |-
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> قمرىصفت، بر آن گل گلزار معرفت </span>
| |
| | style="width:2em;" |
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> نالید آن قدر که ز تاب و توان فتاد </span>
| |
| |-
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> یاقوت خون ز جزع یمانى بر او فشاند </span>
| |
| | style="width:2em;" |
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> یادش چو ز آن عقیق لبِ دُر فشان فتاد </span>
| |
| |-
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> پس کرد روى خویش سوى روضه رسول </span>
| |
| | style="width:2em;" |
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> کاى جدِّ تاجبخش من! اى رهبر عقول </span>
| |
| |}
| |
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| '''8'''{{شعر}} | | '''8'''{{شعر}} |
خط ۷۱۷: |
خط ۴۴۴: |
| {{ب| آن گاه رو به خلوت امُّ المُصاب کرد | وز سوز دل به مادر دلخون خطاب کرد }} | | {{ب| آن گاه رو به خلوت امُّ المُصاب کرد | وز سوز دل به مادر دلخون خطاب کرد }} |
| {{پایان شعر}} | | {{پایان شعر}} |
| {| style="margin: 0 auto; "
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> این لؤلؤ تر و دُرِ گلگون، حسین توست </span>
| |
| | style="width:2em;" |
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> وین خشک لعلِ غرقه در خون، حسین توست </span>
| |
| |-
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> این مرکز محیط شهادت، که موج خون </span>
| |
| | style="width:2em;" |
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> افشانده تا به دامن گردون، حسین توست </span>
| |
| |-
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> این نیّرى که کرده به دریاى خون غروب </span>
| |
| | style="width:2em;" |
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> وز شرقِ نیزه، سر زده بیرون حسین توست </span>
| |
| |-
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> این مصحفِ حروف مقطّع، که ریخته </span>
| |
| | style="width:2em;" |
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> اجزاى او به صفحۀ هامون، حسین توست </span>
| |
| |-
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> این مظهر تجلّى بىچند و چون، که هست </span>
| |
| | style="width:2em;" |
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> از چند و چون جراحتش افزون، حسین توست </span>
| |
| |-
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> این گوهر ثمین که به خاک است و خون، دفین </span>
| |
| | style="width:2em;" |
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> مانند اسم اعظم مخزون، حسین توست </span>
| |
| |-
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> این هادى عقول، که در وادى غمش </span>
| |
| | style="width:2em;" |
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> عقل جهانیان شده مجنون، حسین توست </span>
| |
| |-
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> این کشتى نجات، که توفان ماتمش </span>
| |
| | style="width:2em;" |
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> اوضاع دهر کرده دگرگون، حسین توست </span>
| |
| |-
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> آن گاه رو به خلوت امُّ المُصاب کرد </span>
| |
| | style="width:2em;" |
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> وز سوز دل به مادر دلخون خطاب کرد </span>
| |
| |}
| |
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| '''9'''{{شعر}} | | '''9'''{{شعر}} |
خط ۷۷۶: |
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| {{ب| اى مادر! از یزید و، از ابن زیاد داد | از آن، که این اساس ستم را نهاد داد! }} | | {{ب| اى مادر! از یزید و، از ابن زیاد داد | از آن، که این اساس ستم را نهاد داد! }} |
| {{پایان شعر}} | | {{پایان شعر}} |
| {| style="margin: 0 auto; "
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| | class="b" |<span class="beyt"> اى بانوى حجاز! مرا بینوا ببین </span>
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| | class="b" |<span class="beyt"> چون نى، نواکنان ز غم نینوا ببین </span>
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| | class="b" |<span class="beyt"> اى کعبه حیا به مناى وفا، بیا </span>
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| | style="width:2em;" |
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| | class="b" |<span class="beyt"> قربانیان خویش به کوه صفا ببین </span>
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| | class="b" |<span class="beyt"> نورستگان خویش، سراسر بریده سر </span>
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| | style="width:2em;" |
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| | class="b" |<span class="beyt"> وز خونِ نو خطان به سراپا حنا ببین </span>
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| | class="b" |<span class="beyt"> در خاک و خون تپان مهِ رخسار شه نگر </span>
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| | class="b" |<span class="beyt"> رنگ جفا بر آینه حقنما ببین </span>
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| | class="b" |<span class="beyt"> بر نخل طور سرِّ انا اللّه را نگر </span>
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| | class="b" |<span class="beyt"> وز روى نى، تجلّى ربُّ العُلى ببین </span>
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| | class="b" |<span class="beyt"> اى خفته نهفته اندر حجاب قدس </span>
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| | style="width:2em;" |
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| | class="b" |<span class="beyt"> برخیز و بىحجابى ما برملا ببین </span>
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| | class="b" |<span class="beyt"> زنجیر جور و سلسله عدل را قرین! </span>
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| | style="width:2em;" |
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| | class="b" |<span class="beyt"> توحید را به حلقه شرک، آشنا ببین! </span>
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| | class="b" |<span class="beyt"> پرگار کفر، نقطه اسلام را محیط </span>
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| | style="width:2em;" |
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| | class="b" |<span class="beyt"> دین را، مدار دایرۀ اشقیا ببین </span>
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| |-
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| | class="b" |<span class="beyt"> اى مادر! از یزید و، از ابن زیاد داد </span>
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| | style="width:2em;" |
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| | class="b" |<span class="beyt"> از آن، که این اساس ستم را نهاد داد! </span>
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| {{ب| گر شور شام را، به حکایت درآورند | آشوب بامداد قیامت، برآورند }} | | {{ب| گر شور شام را، به حکایت درآورند | آشوب بامداد قیامت، برآورند }} |
| {{پایان شعر}} | | {{پایان شعر}} |
| {| style="margin: 0 auto; "
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| | class="b" |<span class="beyt"> کاش آن زمان سراى طبیعت نگون شدى </span>
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| | style="width:2em;" |
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| | class="b" |<span class="beyt"> وز هم گسسته رابطۀ کاف و نون شدى </span>
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| |-
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| | class="b" |<span class="beyt"> کاش آن زمان که کشتى ایمان به خون نشست </span>
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| | style="width:2em;" |
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| | class="b" |<span class="beyt"> فُلک و فلک ز موج غمش غرق خون شدى </span>
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| |-
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| | class="b" |<span class="beyt"> کاش آن زمان که رایت دین بر زمین فتاد </span>
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| | style="width:2em;" |
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| | class="b" |<span class="beyt"> زرین لواى چرخ برین، واژهگون شدى </span>
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| |-
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| | class="b" |<span class="beyt"> کاش آن زمان که عین عیان شد به خون تپان </span>
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| | style="width:2em;" |
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| | class="b" |<span class="beyt"> سیلاب خون روان ز عیون عیون <ref>چشمهساران چشمها.</ref> شدى </span>
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| |-
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| | class="b" |<span class="beyt"> کاش آن زمان که گشت روان کاروان غم </span>
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| | style="width:2em;" |
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| | class="b" |<span class="beyt"> ملک وجود را به عدم رهنمون شدى </span>
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| |-
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| | class="b" |<span class="beyt"> کاش آن زمان ز سلسله خیل بیکسان </span>
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| | style="width:2em;" |
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| | class="b" |<span class="beyt"> یک حلقه، بندِ گردن گردونِ دون شدى </span>
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| |-
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| | class="b" |<span class="beyt"> کاش آن زمان که زد مهِ یثرب به شام، سر </span>
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| | style="width:2em;" |
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| | class="b" |<span class="beyt"> چون شام، صبح روى جهان تیرهگون شدى </span>
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| |-
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| | class="b" |<span class="beyt"> کاش از حدیث بزم یزید و، شه شهید </span>
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| | style="width:2em;" |
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| | class="b" |<span class="beyt"> دل؛ خون شدى، ز دیدۀ حسرت برون شدى </span>
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| |-
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| | class="b" |<span class="beyt"> گر شور شام را، به حکایت درآورند </span>
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| | style="width:2em;" |
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| | class="b" |<span class="beyt"> آشوب بامداد قیامت، برآورند </span>
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| '''11'''{{شعر}} | | '''11'''{{شعر}} |
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| {{ب| چون شکوۀ تو را به درِ داور آورند | دود، از نهاد امکان برآورند }} | | {{ب| چون شکوۀ تو را به درِ داور آورند | دود، از نهاد امکان برآورند }} |
| {{پایان شعر}} | | {{پایان شعر}} |
| {| style="margin: 0 auto; "
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> اى چرخ! تا درین ستم آباد، کردهاى </span>
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| | style="width:2em;" |
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| | class="b" |<span class="beyt"> پیوسته خانه ستم، آباد کردهاى! </span>
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| |-
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| | class="b" |<span class="beyt"> بنیاد عدل و داد، بسى دادهاى به باد </span>
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| | style="width:2em;" |
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| | class="b" |<span class="beyt"> زین پایۀ ستم که تو بنیاد کردهاى </span>
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| |-
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| | class="b" |<span class="beyt"> تا دادهاى، به دشمن دین کام دادهاى </span>
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| | style="width:2em;" |
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| | class="b" |<span class="beyt"> یا خاطرى ز نسل خطا، شاد کردهاى </span>
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| | class="b" |<span class="beyt"> از روده معاویه و، زاده زیاد </span>
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| | style="width:2em;" |
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| | class="b" |<span class="beyt"> تا کردهاى، به عیش و طرب یاد کردهاى </span>
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| |-
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| | class="b" |<span class="beyt"> آبى، نصیب حنجر سرچشمه حیات </span>
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| | style="width:2em;" |
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| | class="b" |<span class="beyt"> از چشمهسار خنجر فولاد کردهاى! </span>
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| |-
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| | class="b" |<span class="beyt"> سرحلقه ملوک جهان را به عدل و داد </span>
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| | style="width:2em;" |
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| | class="b" |<span class="beyt"> در بند ظلم و، حلقه بیداد کردهاى </span>
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| |-
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| | class="b" |<span class="beyt"> اى کجروش، به پرورش هر خسى،بسى </span>
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| | style="width:2em;" |
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| | class="b" |<span class="beyt"> جور و جفا به شاخه شمشاد کردهاى </span>
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| |-
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| | class="b" |<span class="beyt"> تا برق کین به گلشن ایمان و دین زدى </span>
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| | style="width:2em;" |
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| | class="b" |<span class="beyt"> آفاق را، چو رعد پر از داد کردهاى </span>
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| |-
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| | class="b" |<span class="beyt"> چون شکوۀ تو را به درِ داور آورند </span>
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| | style="width:2em;" |
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| | class="b" |<span class="beyt"> دود، از نهاد امکان برآورند </span>
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| '''12'''{{شعر}} | | '''12'''{{شعر}} |
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| {{ب| کس جز شهید عشق، وفایى چنین نکرد | وز دل قبول بار جفایى چنین، نکرد }} | | {{ب| کس جز شهید عشق، وفایى چنین نکرد | وز دل قبول بار جفایى چنین، نکرد }} |
| {{پایان شعر}} | | {{پایان شعر}} |
| {| style="margin: 0 auto; "
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> خاموش «مفتقر»! که دلِ دهر آب شد </span>
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| | style="width:2em;" |
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| | class="b" |<span class="beyt"> وز سیل اشک، عالم خراب شد </span>
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| |-
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| | class="b" |<span class="beyt"> خاموش «مفتقر»! که از این شعر شعلهبار </span>
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| | style="width:2em;" |
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| | class="b" |<span class="beyt"> آتش به جان مرد و زن و شیخ و شاب شد </span>
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| |-
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| | class="b" |<span class="beyt"> خاموش «مفتقر»! که ازین راز دل گداز </span>
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| | style="width:2em;" |
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| | class="b" |<span class="beyt"> صاحبدلى نماند مگر دل کباب شد </span>
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| |-
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| | class="b" |<span class="beyt"> خاموش «مفتقر»! که ز برق نفیر خلق </span>
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| | style="width:2em;" |
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> دود فلک برآمد و خَرقِ حجاب شد </span>
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| |-
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| | class="b" |<span class="beyt"> خاموش «مفتقر»! که بسیط زمین ز غم </span>
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| | style="width:2em;" |
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> غرق محیط خون شد و، در اضطراب شد </span>
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| |-
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| | class="b" |<span class="beyt"> خاموش «مفتقر»! که ز بیتابىِ ملک </span>
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| | style="width:2em;" |
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| | class="b" |<span class="beyt"> چشم فلک سرشک فشان چون سحاب شد </span>
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| |-
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| | class="b" |<span class="beyt"> خاموش «مفتقر»! که ز دود دل مسیح </span>
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| | style="width:2em;" |
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> خورشید را به چرخ چهارم، نقاب شد </span>
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| |-
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| | class="b" |<span class="beyt"> خاموش «مفتقر»! که درین ماتم عظیم </span>
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| | style="width:2em;" |
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| | class="b" |<span class="beyt"> آدم به تاب آمد و، خاتم ز تاب شد </span>
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| |-
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> کس جز شهید عشق، وفایى چنین نکرد </span>
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| | style="width:2em;" |
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> وز دل قبول بار جفایى چنین، نکرد </span>
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| |}
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| '''13'''{{شعر}} | | '''13'''{{شعر}} |
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| {{ب| انجیل، خون گریست چو آزرده بنگریست | لعلى که روحبخش و شفاى صدور <ref>سینهها،جمع صدر.</ref> بود }} | | {{ب| انجیل، خون گریست چو آزرده بنگریست | لعلى که روحبخش و شفاى صدور <ref>سینهها،جمع صدر.</ref> بود }} |
| {{پایان شعر}} | | {{پایان شعر}} |
| {| style="margin: 0 auto; "
| | |
| | class="b" |<span class="beyt"> مصباح نور، جلوهگر اندر تنور بود </span>
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| | style="width:2em;" |
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> یا در تنور، آیۀ «اللّه نور»، بود </span>
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| |-
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| | class="b" |<span class="beyt"> گاهى به اوج نیزه، گهى در حضیض خاک </span>
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| | style="width:2em;" |
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> از غایت خفاء کمال ظهور بود </span>
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| |-
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| | class="b" |<span class="beyt"> گاهى، مدار دایره سوز و ساز شد </span>
| |
| | style="width:2em;" |
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| | class="b" |<span class="beyt"> گاهى چو نقطه، مرکز شورِ نُشور <ref>روز قیامت.</ref> بود </span>
| |
| |-
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> یا شمع جمعِ انجمن آه و ناله شد </span>
| |
| | style="width:2em;" |
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> یا شاهد بساط نشاط و سرور بود </span>
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| |-
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> گاهى چو نقطه، بر درِ سر حلقه فساد </span>
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| | style="width:2em;" |
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> رأس الفخار بر درِ رأس الفجور بود <ref>سرآمدِ افتخار آفرینان عالم، در سراى سرحلقه زشتکاران جاى داشت.</ref> </span>
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| |-
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| | class="b" |<span class="beyt"> آخر به بزم باده مست و غرور رفت </span>
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| | style="width:2em;" |
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| | class="b" |<span class="beyt"> لعل لبى که عین شراب طهور بود </span>
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| |-
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| | class="b" |<span class="beyt"> یا للعجب! که نقطه توحید، آشنا </span>
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| | style="width:2em;" |
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| | class="b" |<span class="beyt"> با چوب خیزرانِ اثیم کفور <ref>گناهکار ناسپاس، کنایه از یزید.</ref> بود </span>
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| |-
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| | class="b" |<span class="beyt"> قرآن، قرین ناله شد آن دم که منطقش </span>
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| | style="width:2em;" |
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| | class="b" |<span class="beyt"> داود بود و، نغمهسُراى زبور بود </span>
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| |-
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| | class="b" |<span class="beyt"> تورات، زد به سینه چو از کینه شد خموش </span>
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| | style="width:2em;" |
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| | class="b" |<span class="beyt"> صوت انَا اللَّهى که ز سیناى بود </span>
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| |-
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| | class="b" |<span class="beyt"> انجیل، خون گریست چو آزرده بنگریست </span>
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| | style="width:2em;" |
| |
| | class="b" |<span class="beyt"> لعلى که روحبخش و شفاى صدور <ref>سینهها،جمع صدر.</ref> بود </span>
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| ====فی لیلة عاشوراء==== | | ====فی لیلة عاشوراء==== |
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